8 तीर्थ स्थल, जहां पितृों को श्राद्ध और तर्पण से मुक्ति मिलती है

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पितृों का श्राद्ध करना हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखता है।

शास्त्रों में पितृों का तर्पण करने के लिए पितृ पक्ष की व्याख्या की गई है। पितृपक्ष में श्राद्ध और पिंडदान करने का विशेष महत्व है। यही कारण है कि, इन 15 दिनों में पूरे भारत में विभिन्न तीर्थ स्थलों पर पिंडदान और तर्पण किया जाता है।

शास्त्रों में इन सभी तीर्थ स्थलों की बड़ी महिमा बताई गई है। इन तीर्थों में पितृ दोष की शांति, तर्पण, श्राद्ध कर्म आदि करने पर पितृों को अक्षय शांति और तृप्ति मिलती है। यही कारण है कि, हर साल बड़ी संख्या में लोग इन तीर्थ स्थलों पर पितृों का तर्पण करने के लिए आते हैं।

इस आर्टिकल में हम पिंड दान, तर्पण और श्राद्ध के लिए प्रसिद्ध 8 तीर्थ स्थलों के बारे में जानकारी दी जा रही है। इन तीर्थ स्थलों पर जाकर कोई भी इंसान अपने पूर्वजों का पिंडदान और तर्पण कर सकता है।

श्राद्ध-तर्पण के लिए प्रसिद्ध 8 तीर्थ स्थल:

1. गया, बिहार

गया का विष्णुपद मंदिर पितरों का श्राद्ध-तर्पण करने के लिए प्रसिद्ध है। श्राद्ध-तर्पण के लिए जितनी महिमा गया जी तीर्थ की बताई गई है, उतनी किसी अन्य तीर्थस्थल की नहीं कही गई है। यही कारण है कि, हर साल लाखों हिंदू धर्मावलंबी गया जी में पिंडदान के लिए आते हैं। 

ऐसा कहा जाता है कि, मृत्यु के बाद व्यक्ति के पूर्वज गया के विष्णु पद मंदिर के पेड़ के पत्तों पर बैठकर प्रतीक्षा करते हैं। जब तक, उनका वंशज वहां पिंडदान करने के लिए नहीं जाता है। वो हर साल वहीं इंतजार करते रहते हैं।

पितृ पक्ष के दौरान, गया जी में 15 दिन रहकर फल्गु नदी के किनारे पिंडदान की बड़ी महिमा कही गई है। जिसके नाम का पिंडदान गया जी में हो जाता है, निश्चित रूप से उसकी मुक्ति हो जाती है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

2. काशी, उत्तर प्रदेश

काशी, दुनिया का सबसे पुराना शहर है। काशी के मणिकर्णिका और दशाश्वमेध घाट पर पिंड दान और तर्पण का विशेष महत्व बताया गया है। ऐसा कहा जाता है कि, इन स्थानों पर किए गए श्राद्ध कर्म को स्वयं भगवान शिव और भैरव स्वीकार करते हैं और मुक्ति प्रदान करते हैं।

भगवान शिव के त्रिशूल की नोंक पर बसी काशी को प्रलयकाल में भी अजर-अमर रहने का वरदान प्राप्त है। काशी में मृत्यु की भी बड़ी महिमा बताई गई है। यही कारण है कि, मृत्यु के निकट होने पर लोग शरीर त्यागने के लिए भी काशी आते हैं।

3. ध्रुव घाट, मथुरा

पितरों के तर्पण के लिए 5 स्थानों की सर्वाधिक महिमा बताई गई है। इन 5 स्थानों में से एक भगवान श्री कृष्ण की नगरी मथुरा भी है।

मथुरा में यमुना नदी के तट पर कुल 24 घाट हैं। जिनमें से ध्रुव घाट को तर्पण कर्म के लिए विशेष माना जाता है। ध्रुव घाट में पिंडदान भी किया जाता है। इसका बड़ा महत्व शास्त्रों में बताया गया है।

श्रीमद्भगावत की कथा के अनुसार, महाराज उत्तानपाद के पुत्र और भगवान के प्रिय भक्त ध्रुव ने इसी स्थान पर अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए पिंडदान और श्राद्ध किया था। इस पिंडदान से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें उत्तम गति और वैकुंठ लोक में निवास प्रदान किया था।

4. हरि की पैढ़ी, हरिद्वार

पैढ़ी, हिंदी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘सीढ़ियां’। ‘हरि की पैढ़ी’ ये नाम स्वयं अपनी महिमा बता देता है। हरिद्वार को ‘मायापुरी’ भी कहा जाता है। ये भगवान श्री हरि विष्णु का नित्य निवास स्थान है। 

हरिद्वार में पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण के लिए मुख्य रूप से 5 स्थानों का विशेष महत्व बताया गया है जो निम्न हैं –

  1. हरि की पैढ़ी घाट
  2. त्रि-गंगा
  3. शक्रावर्त
  4. नारायण शिला
  5. कनखल धाम

हरि की पैढ़ी में मुख्य रूप से शव को जलाने के पश्चात अस्थि विसर्जन और संबंधित पूजा का कार्य संपन्न किया जाता है। जबकि, त्रि-गंगा और शक्रावर्त घाट में पिंडदान और श्राद्ध कर्म संपन्न करवाए जाते हैं। 

ऐसे पूर्वज जो मृत्यु के बाद प्रेत रूप में अपने वंशजों को दिखने लगते हैं या तंग करने लगते हैं। उनकी मुक्ति का विधान नारायण शिला में किया जाता है। यहां पर नारायण बलि, नाग बलि और त्रिपिंडी श्राद्ध या सपिंडन श्राद्ध के कर्म संपन्न करवाए जाते हैं। इससे पितृों को तृप्ति, मुक्ति मिलती है और विष्णुपद में निवास भी मिलता है। 

इसके अलावा, यदि कोई व्यक्ति अपने ससुर या हत्या के कारण मारे गए किसी पूर्वज का श्राद्ध तर्पण करना चाहता है तो, वह कनखल तीर्थ क्षेत्र में संपन्न होता है। अकाल मृत्यु का शिकार हुई महिलाओं का श्राद्ध भी यहां पर किया जाता है। भगवान शिव ने देवी सती का पिंडदान भी कनखल में ही किया था।

5. देव प्रयाग, उत्तराखंड

प्रयाग का अर्थ होता है, दो नदियों का संगम। यानि, जहां दो नदियां आपस में मिल जाती हैं।सनातन धर्म में इसे बड़ा ही पवित्र संयोग माना जाता है। उत्तराखंड के देव प्रयाग में दो प्रमुख नदियों का संगम होता है। 

पहली नदी है अलखनंदा। ये नदी माणा ग्लेशियर से निकलती है और बद्रीनाथ जी के चरणों से होते हुए देवप्रयाग तक आती है। अलखनंदा नदी में हिमालय के अन्य ग्लेशियर से निकलने वाली कई नदियां भी क्रमश: विष्णु प्रयाग, नंद प्रयाग, रुद्रप्रयाग और कर्णप्रयाग में मिलती हैं। 

जबकि, दूसरी नदी भागीरथी हैं जो, गौमुख स्थित गंगोत्री ग्लेशियर से निकलकर देवप्रयाग तक आती हैं। इन दोनों नदियों का मिलन होने पर ही नई धारा को गंगा जी का नाम मिलता है। गंगा नदी का उद्गम होने के कारण इस स्थान की बड़ी महिमा है। 

देव प्रयाग में राजा रामचंद्र जी ने भी अपने पिता राजा दशरथ के लिए तर्पण किया था। इसी कारण, देव प्रयाग में पितृ तर्पण का बड़ा महत्व बताया गया है। यहां किया गया तर्पण पितृों को संपूर्ण मुक्ति और तृप्ति देता है।

6. त्रियुगी नारायण मंदिर, उत्तराखंड

उत्तराखंड का त्रियुगी नारायण मंदिर, शिव-पार्वती के विवाह स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लेकिन, ये बात कम लोग ही जानते हैं कि, त्रियुगीनारायण मंदिर के सरस्वती कुंड में तर्पण भी किया जाता है।

लगभग 18000 साल पुराना ये प्रसिद्ध मंदिर, उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग से 159 किलोमीटर दूर है। ये मंदिर भगवान विष्णु और उनकी पत्नियों लक्ष्मी और सरस्वती को समर्पित है। मंदिर में लगभग 2 फुट ऊंची विष्णु प्रतिमा है। जबकि, देवी लक्ष्मी और सरस्वती की प्रतिमा थोड़ी छोटी है। 

मंदिर के गर्भगृह के पास सदियों से एक ‘अखंड धूनी’ जल रही है। मान्यता है कि इस अग्नि कुंड में शिव-पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। मंदिर के प्रांगण में चार कुंड हैं- रुद्र कुंड, विष्णु कुंड, ब्रह्म कुंड, और सरस्वती कुंड। 

इन कुंडों में से रुद्र कुंड में स्नान, विष्णु कुंड में मार्जन, ब्रह्म कुंड में आचमन, सरस्वती कुंड में तर्पण कर्म संपन्न करवाया जाता है। मान्यता है कि, शिव और विष्णु की साक्षात कृपा होने के कारण ये स्थान पितरों को उत्तम गति देने वाला है।

त्रेतायुग, आज से करीब 17,900 साल पहले खत्म हुआ था, इसलिए यह तीर्थस्थल 17,900 साल से भी ज़्यादा पुराना है। कुछ लोगों का मानना है कि यह दुनिया का सबसे पुराना धार्मिक स्थल है।

7. ब्रह्म कपाल शिला, बद्रीनाथ

उत्तराखंड के चमोली जिले में भगवान ब्रदीनाथ का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। इसी मंदिर के पास ही ब्रह्म कपाल ​तीर्थ स्थित है। इस तीर्थ को पितर तर्पण का सुप्रीम कोर्ट भी कहा जाता है। यानि की यहां तर्पण के बाद किसी भी प्रकार के तर्पण या श्राद्ध की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 

ब्रह्म कपाल शिला को कपाल मोचन तीर्थ भी कहते हैं। मान्यता है कि, सृष्टि के आरंभ में ही परमपिता ब्रह्मा से कुछ अपराध हुआ। अपराध से क्रोधित होकर भगवान शिव ने ब्रह्मदेव का सिर अपने त्रिशूल से काट दिया।  

ब्रह्म देव का पांचवां सिर भगवान शिव के हाथ में ब्रह्महत्या का दोष लगने से चिपक गया। भगवान विष्णु की सलाह पर उन्होंने विभिन्न तीर्थों की यात्रा और स्नान करना प्रारंभ कर दिया। इसी स्थान पर आते ही भगवान शिव के हाथों से वो कटा हुआ सिर छूटकर गिर गया। 

इस घटना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इस तीर्थ को वरदान दिया कि, जो भी व्यक्ति यहां अपने पितरों की तृप्ति और शान्ति के लिए पिंडदान, श्राद्ध करेगा। उसे जघन्य पापों और प्रेतयोनि से भी तत्काल मुक्ति मिल जाएगी।

लेकिन, ब्रह्म कपाल तीर्थ में श्राद्ध कर्म करने से पहले गया धाम में पितरों के निमित्त श्राद्ध-तर्पण करने का विधान है। स्कंद पुराण में ब्रह्मकपाल को गया से आठ गुना अधिक फलदायी तीर्थ कहा गया है।

इस तीर्थ में आज भी दिमाग के आकार की विशाल चट्टान मौजूद है। जिस पर पितरों का तर्पण किया जाता है। इसी शिला के नीचे ब्रह्म कुंड है, जहां ब्रह्म देव ने तपस्या की थी। अलकनंदा नदी ब्रह्मकपाल को पवित्र करती हुई यहां से प्रवाहित होती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समाप्त होने के बाद पाण्डवों को ब्रह्मकपाल में जाकर पितरों का श्राद्ध करने का निर्देश दिया था। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा मानकर पाण्डव बद्रीनाथ की शरण में गए और ब्रह्मकपाल तीर्थ में पितरों एवं युद्ध में मारे गए सभी लोगों के लिए श्राद्ध किया था।

8. पिहोवा तीर्थ, कुरुक्षेत्र, हरियाणा

कुरुक्षेत्र के पिहोवा ​तीर्थ में सरस्वती के तट पर पिंडदान तर्पण करने की बड़ी महिमा शास्त्रों में बताई गई है। सतयुग के इस तीर्थस्थल का प्राचीन नाम ‘पृथुदक’ था।

महाभारत में लिखा है कि,

‘पुण्यामाहु कुरुक्षेत्र कुरुक्षेत्रात्सरस्वती। सरस्वत्माश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथुदकम॥’

अर्थ: ‘कुरुक्षेत्र पवित्र है और सरस्वती कुरुक्षेत्र से भी पवित्र है। सरस्वती तीर्थ अत्यंत पवित्र है, किन्तु पृथुदक इनमें सबसे अधिक पावन व पवित्र है॥’

महाभारत, वामन पुराण, स्कन्द पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि अनेक पुराणों एवं धर्मग्रन्थों में इस तीर्थ का महत्व बताया गया है। पौराणिक व्याख्यानों के अनुसार इस तीर्थ की रचना प्रजापति ब्रह्मा ने पृथ्वी, जल, वायु व आकाश के साथ सृष्टि के आरम्भ में की थी। 

‘पृथुदक’ शब्द की उत्पत्ति का सम्बन्ध महाराजा पृथु से रहा है। इस जगह पृथु ने अपने पिता की मृत्यु के बाद उनका क्रियाकर्म एवं श्राद्ध किया। अर्थात जहां पृथु ने अपने पिता को उदक यानि जल दिया। पृथु व उदक के जोड़ से यह तीर्थ पृथुदक कहलाया।

वहीं वामन पुराण के अनुसार गंगा के तट पर रहने वाले रुषंगु नामक ऋषि ने अपना अन्त समय जानकर मुक्ति की इच्छा से गंगा को छोड़कर पृथुदक में जाने के लिए अपने पुत्रों से आग्रह किया था। क्योंकि उनका कल्याण गंगा द्वार पर संभव नहीं था।

पद्मपुराण के अनुसार जो व्यक्ति सरस्वती के उत्तरी तट पर स्थित पृथुदक में जप करता हुआ अपने शरीर का त्याग करता है, वह नि:संदेह अमरत्व को प्राप्त करता है।

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