दक्षिणामूर्ति या ज्ञान दक्षिणामूर्ति भगवान शिव का एक ऐसा शक्तिशाली अवतार माना जाता है जिसमें भगवान शिव एक गुरु या शिक्षक के रूप में प्रकट हुए थे। भगवान शिव का यह दिव्य रूप सभी प्रकार के ज्ञान, समझ और बुद्धि का प्रतीक है। भगवान शिव के इस रूप को योग, संगीत, ध्यान और विभिन्न अन्य कलाओं के शिक्षक के रूप में भी पूजनीय माना जाता है क्यूंकि शिव को शास्त्रों के श्रेष्ठ ज्ञाता के रूप में माना जाता है और शास्त्रों या वेदों में भगवान शिव की समझ एवं ज्ञान है।
दक्षिणामूर्ति का अर्थ है ‘दक्षिण की ओर मुख करके रहने वाली मूर्ति’। रमण महर्षि1 ने ‘दक्षिणामूर्ति’ का अर्थ ‘जो सक्षम होते हुए भी निराकार है’ के रूप में किया है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का एक गुरु होना बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है किन्तु अगर किसीके पास गुरु नहीं है तो उन्हें भगवान दक्षिणामूर्ति को ही अपने शिक्षक के रूप में मानने या पूजने की सलाह दी जाती है।
हिंदू परंपरा में गुरु का महत्व
हिंदू परंपरा में “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव” एक श्लोक है, जिसके अर्थानुसार मां, पिता और शिक्षक को ईश्वर के समान माना गया है। यह श्लोक तैत्तिरीय उपनिषद से लिया गया है । गुरु के महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि जिस बालक का उपनयन2 संस्कार हुआ है, उसके पिता के रूप में गुरु को ही माना एवं पूजा जाता है क्यूंकि हिन्दू मान्यताओं के अनुसार उपनयन संस्कार को किसी भी बालक का पुनः जनम मानते हैं और इसीलिए गुरु द्वारा सिखाए गए वेद उस बालक की मां कहलाई जाती हैं।
दक्षिणामूर्ति की उत्पत्ति की कहानी
भगवान ब्रह्मा के चार मानस पुत्र सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार ने कठोर तपस्या की किन्तु ये मानस पुत्र अब भी जीवन के सर्वोच्च सत्य से अनभिज्ञ थे। अंततः उन्होंने भगवान शिव के पास जाकर सत्य का ज्ञान प्राप्त करने का निर्णय लिया। भगवान शिव ने उनको समाधान देने के लिए एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर योग मुद्रा बनाई और बिना एक भी शब्द कहे ध्यान करने लगे एवं चारों ऋषि भी उनके चारों ओर ज्ञान प्राप्ति के लिए बैठ गए परन्तु भगवान शिव के बिना कुछ कहे ही, मात्र उनकी ध्यान मुद्रा को देखते हुए ही उन्हें उनके सभी संदेहों का समाधान मिल गया।
भगवान शिव का यह रूप जिसमें भगवान ने स्वयं को एक सर्वोच्च मार्गदर्शक के रूप में प्रकट किया, उनका ज्ञान का यह रूप ‘दक्षिणामूर्ति’ कहलाता है। यह बताता है कि सत्य को कई बार शब्दों में समझाया नहीं जा सकता और उसे सिर्फ अनुभव करना होता है।
कैसा दिखता है दक्षिणामूर्ति का रूप?
यूँ तो भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति अवतार के कई रूप भारत के अलग अलग मंदिरों में देखने को मिल जाते हैं किन्तु एक बात जो प्रत्येक शिव मंदिर में देखने को मिलती है वह ये है कि दक्षिणामूर्ति कि मूर्ति सदैव दक्षिण की ओर मुख करके स्थापित की जाती है । वास्तव में हिन्दुओं के सभी देवी देवताओं में ये एक मात्र अकेले ऐसे देवता हैं जो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके रहते हैं।
श्री दक्षिणामूर्ति आमतौर पर बैठे हुए मुद्रा में दिखाए जाते किन्तु कुछ मंदिरो में उनके कड़ी हुई प्रतिमाएं भी हैं (जब वे अपनी वीणा बजा रहे होते हैं)। दक्षिणामूर्ति भगवान की चार भुजाए हैं और जब वे बैठे हुए दिखाए जाते हैं, तो उनका दाहिना पैर नीचे फैला होता है और एक बौने राक्षस (अपस्मार, जो अज्ञान और आलोक का प्रतीक है) पर टिका होता है। जिस स्थान पर वे बैठते हैं, वह हिरन की खाल या बाघ की खाल से ढका होता है। उनका बायां पैर घुटने पर मुड़ा होता है और दाहिने घुटने या जांघ पर टिका होता है।
श्री दक्षिणामूर्ति भगवान अधिकतर एक वैट वृक्ष के नीचे बैठे हुए दिखते हैं और उनके एक हाथ में रुद्राक्ष की माला, एक हाथ में उनका डमरू एवं एक हाथ में पुस्तक या वेद रखे हुए दिखते हैं। वह साधारण अलंकरण जैसे कि फूलों की माला, जनेऊ और चन्दन का लेप धारण करते हुए दिखते हैं। वे एक गहरी ध्यान मुद्रा में होते हैं एवं उनके दिव्य चेहरे पर एक मधुर मुस्कान रहती है।
कई रूपों में उनका एक दाहिना हाथ ज्ञान मुद्रा में होता है । ज्ञान मुद्रा पर एक लोकप्रिय व्याख्या यह है कि उनका अंगूठा भगवान का प्रतिनिधित्व करता है, तर्जनी ऊँगली मनुष्य का प्रतिनिधित्व करती है और बाकी तीन उंगलियां मनुष्य को प्रभावित करने वाली तीन जन्मजात अशुद्धियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जैसे अहंकार, भ्रम और पिछले जन्मों में किए गए बुरे कर्म। चूंकि तीन उंगलियां तर्जनी (मनुष्य) को अलग करती हैं, हम दक्षिणामूर्ति भगवान से सीख सकते हैं कि हम भी अशुद्धियों से अलग हो कर पर ब्रह्म तक पहुंच सकते हैं।
चेन्नई के कपालीश्वरर मंदिर के गोपुरम में दक्षिणामूर्ति भगवान की दो मूर्तियां दिखाई देती हैं, एक वीणा बजाते हुए और दूसरी ध्यान की अवस्था में।
बारह ज्योतिर्लिंगों में से केवल एक ज्योतिर्लिंग है जिसमें कि दक्षिणामूर्ति देखने को मिलते हैं और वह स्थित है महाकालेश्वर उज्जैन में । यह दक्षिणामूर्ति ज्योतिर्लिंग शिव भक्तों के लिए शिक्षा के स्थल के रूप में विशेष महत्व रखता है। भारत में सबसे प्रसिद्ध दक्षिणामूर्ति मंदिरों में से एक केरल का वैकोम महादेव मंदिर है। तमिलनाडु में भी कई मंदिर हैं जहां दक्षिणामूर्ति मुख्य देवता के रूप में पूजे जाते हैं। अधिकांश शिव मंदिरों में दक्षिणामूर्ति उप-देवता के रूप में होते हैं।
दक्षिणामूर्ति का ध्यान करने के लिए मंत्र
हिन्दू परंपरा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मण ही शिक्षक के रूप में प्रकट होते हैं और ज्ञान प्रदान करते हैं। इसलिए लोक कथाओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने ऋषि मनु को मनु स्मृति प्रदान की, भगवान विष्णु वेदों को विभाजित और व्यवस्थित करने के लिए वेद व्यास के रूप में प्रकट हुए और परब्रह्म स्वयं एक युवा बालक ‘दक्षिणामूर्ति’ के रूप में प्रकट हुए, इसलिए दक्षिणामूर्ति का ध्यान करने के लिए एक श्लोक उन्हें इस प्रकार वर्णित करता है:
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा। गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु च्छिन्नसंशयाः।।
अर्थ – वास्तव में अद्भुत! वृक्ष के नीचे वृद्ध शिष्य युवा गुरु के चारों ओर बैठे हैं। उन्होंने मौन के माध्यम से उन्हें शिक्षा दी, फिर भी शिष्यों के सभी संदेह दूर हो गए।
दक्षिणामूर्ति नाम को एक और तरीके से भी समझा जा सकता है। इसे ‘दक्षिणा’ में विभाजित किया जा सकता है जिसका अर्थ है एक व्यक्ति जो कौशल, योग्यता रखता है और ‘अमूर्ति’ जिसका अर्थ है निराकार। दूसरे शब्दों में कहें तो दक्षिणामूर्ति जन्मरहित, निराकार, शाश्वत परब्रह्म ही हैं जो अपनी माया की शक्ति से इस ब्रह्मांड को प्रकट करते हैं और इसे बनाए भी रखते हैं। इसलिए दक्षिणामूर्ति को परब्रह्म के रूप में भी समझा जा सकता है जो निराकार और जन्मरहित होते हुए भी अपनी माया की शक्ति से, दया से विभिन्न देवताओं और गुरुओं के रूप धारण करते हैं और लोगों को मोक्ष की ओर ले जाते हैं।
आदि शंकर द्वारा रचित दक्षिणामूर्ति स्तोत्र इस रूप के लिए एक स्तुतिपूर्ण भजन है।
ओं मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्म तत्वं युवानं, वर्षिष्ठांते वसद ऋषिगणैर आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रम आनंदमूर्तिं, स्वात्मरामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे
अर्थ – मैं श्री दक्षिणामूर्ति को प्रणाम करता हूँ, जो मौन के माध्यम से ब्रह्मण के ज्ञान को सिखाते हैं, जो वेदों में विद्वान ऋषियों से घिरे हुए हैं। (मैं श्री दक्षिणामूर्ति की पूजा करता हूँ) जो शिक्षकों के शिक्षक हैं, जिनका हाथ ज्ञान मुद्रा (चिन्मुद्रा) में है, जिनका स्वभाव पूर्णता है, जो स्वयं में प्रकट होते हैं और जो सदा मौन रहते हैं।
- रमण महर्षि (जन्म 30 दिसंबर, 1879, मदुरई, मद्रास राज्य, भारत- मृत्यु 14 अप्रैल, 1950, तिरुवन्नामलाई) एक हिंदू दार्शनिक और योगी थे, जिन्हें “महान गुरु,” और “अरुणाचल के ऋषि” कहा के नाम से जाना जाता था। अद्वैतवाद के सिद्धांतों पर इनकी तुलना शंकर (सी. 700-750) से की जाती है। योगिक दर्शन में उनका मूल योगदान आत्म-विचार जांच की तकनीक पर रहा है। ↩︎
- उपनयन एक विस्तृत समारोह है जिसमें परिवार, बच्चे और शिक्षक से जुड़े अनुष्ठान शामिल हैं। इस समारोह के दौरान एक लड़के को एक पवित्र धागा मिलता है जिसे यज्ञोपवीत कहा जाता है। यज्ञोपवीत समारोह घोषणा करता है कि बच्चे ने औपचारिक शिक्षा में प्रवेश किया है ↩︎