हवन क्या है, सनातन धर्म में महत्व,​​ शिक्षा, प्रेरणा और उद्देश्य

हवन का सनातन धर्म में विशेष महत्व है। 

कोई भी धार्मिक कार्य या कर्मकांड बिना हवन के संपूर्ण नहीं माना जाता है। चाहें वो किसी संस्कार को संपन्न करना हो या फिर किसी नई दुकान, मकान या ऑफिस का उद्घाटन हो। कोई भी पूजा बिना हवन के पूरी नहीं मानी जाती है। 

वेदों में यज्ञ को स्वयं देवता की संज्ञा दी गई है। यज्ञ या हवन के माध्यम से यजमान की प्रार्थनाओं को देवताओं तक पहुंचाया जा सकता है। यज्ञ में पड़ने वाली आहुतियों से प्रसन्न होकर देवी-देवता अपना आशीर्वाद देते हैं, ऐसा सनातन धर्म का अखंड विश्वास है। 

इसलिए, इस आर्टिकल में हम आपको बताएंगे कि, हवन क्या है? इसके अलावा, हवन का सनातन धर्म में महत्व, इससे मिलने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा और हवन करने के उद्देश्य के बारे में भी जानकारी देंगे। 

हवन क्या है? 

हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर की उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है (जो अग्नि में डाले जाते हैं)।

हवन कुंड में अग्नि प्रज्ज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, लकड़ी तथा औषधियों की आहुति दी जाती है। प्राचीन काल में भी, वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में विद्वान लोग यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे । शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है।

हवन का महत्व क्या है?

आयुर्वेद मानता है कि, प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वायुमण्डल रहते हैं। सर्दी, गर्मी, नमी, वायु का भारीपन, हलकापन, धूल, धुआं, बर्फ आदि का प्रभाव हमें कई प्रकार से प्रभावित करता है।

हर मौसम में विभिन्न प्रकार के कीटणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं समाप्ति का क्रम चलता रहता है। इसलिए कई बार वायुमण्डल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार हानिकारक भी हो जाता है। 

इस प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियों का प्रयोग किया जाता है जो, इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं।

मान्यता है कि, अग्नि किसी भी पदार्थ के गुणों को कई गुना बढ़ा देती है । जैसे अग्नि में अगर मिर्च डाल दी जाए तो उस मिर्च का प्रभाव बढ़ कर कई लोगों को दुख पहुंचाता है। उसी प्रकार अग्नि में पड़ने वाली औषधियों का प्रभाव भी कई गुना बढ़कर लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

यज्ञ/हवन से मिलने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा

यज्ञ करते समय अग्नि भगवान से यजमान ऐसी प्रार्थना करता है कि-

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चस्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम।

(आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/10/12)

यज्ञ को अग्निहोत्र भी कहते हैं। अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता हे। हवन-सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं। अग्नि को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है। 

अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपनी आपको अग्नि समान होने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। 

नीचे अग्नि देव से प्राप्त होने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा के बारे में हम बताने जा रहे हैं।

1. तेजस्वी बनें 

अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए। आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध-तामसिकता के गुण हैं। अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं। जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है, कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए।

हमारी भुजाएं, काम करने के लिए उत्साहित होकर फड़कती रहें। हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील बने और बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में हमेशा उत्साहित होकर कार्य करता रहे। 

2. अपने गुणों से दूसरों को भी लाभ पहुंचाएं

अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है, उसे वह अपने समान बना लेती है। अपने आसपास मौजूद लोगों को भी हम अपने गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयास करें।

जैसे, अग्नि के संपर्क में आने के बाद लकड़ी, कोयला आदि साधारण वस्तुएं भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओ से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें। ताकि, जितनी उन्नति हम करें, हमारे आसपास के लोग भी वैसी ही उन्नति करें।

3. आत्मबल को मजबूत करें

अग्नि जब तक जलती है, तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती। हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें।

4. सत्कर्म के लिए प्रेरि​त हों

वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि, हमारी देह, भस्मान्तं शरीरम् है। यानि कि वह मृत्यु के बाद​ अग्नि के संपर्क में आकर राख मात्र बन जाएगी। वह अग्नि का भोजन है। न मालूम किस दिन यह देह अग्नि का भोजन बन जाए। इसलिए जीवन की नश्वरता को समझते हुए सत्कर्म या अच्छे कामों के लिये तत्पर रहना चाहिए।

5. पहले स्वयं उदाहरण बनें

अग्नि पहले अपने में जलाने की शक्ति धारण करती हैं, तब किसी दूसरी वस्तु को जलाने में समर्थ होती है। हम पहले स्वयं उन गुणों को धारण करें जिन्हें दूसरों में देखना चाहते हैं। उपदेश देकर नहीं, वरन् अपना उदाहरण उपस्थिति करके ही हम दूसरों को कोई शिक्षा दे सकते हैं। 

जो गुण हम में हैं, वैसे ही गुण वाले दूसरे लोग भी हमारे समीप आएंगे और वैसा ही हमारा परिवार बनेगा। इसलिये जैसा वातावरण हम अपने चारों ओर देखना चाहते हों, पहले स्वयं वैसा बनने का प्रयत्न करें।

6. दुर्गुणों से प्रभावित न हों

अग्नि, जिस प्रकार से मलिन वस्तुओं का स्पर्श करके भी स्वयं मलिन नहीं बनती, वरन् दूषित वस्तुओं को भी अपने समान पवित्र बनाती है, वैसे ही दूसरों की बुराइयों से हम प्रभावित न हों। स्वयं बुरे न बनने लगें, वरन् अपनी अच्छाइयों से उन्हें प्रभावित करके पवित्र बना दें।

7. अंधकार से प्रकाश की ओर बढें 

अग्नि जहां रहती है, वहीं प्रकाश फैलता है। हम भी ब्रह्म-अग्नि के उपासक बनकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलावें, अज्ञान के अन्धकार को दूर करें। तमसो मा ज्योतिर्गमय हमारा जीवन मंत्र हो। प्रत्येक कदम अन्धकार से निकल कर प्रकाश की ओर चलने के लिये बढ़ें।

8. सदैव ऊपर उठें 

 अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को उठती रहती है। मोमबत्ती की लौ नीचे की तरफ उलटें तो भी वह ऊपर की ओर ही उठेगी। उसी प्रकार हमारा लक्ष्य, उद्देश्य एवं कार्य सदा ऊपर की ओर उठना हो, न कि, पतन की ओर बढ़कर अधोगामी बनें।

9. लालची न बनें, बांटना सीखें

अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, उसे वह अपने पास नहीं रखती, वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को, देवताओं को, बांट देती है। 

हमें जो भी वस्तु ईश्वर की ओर से, संसार की ओर से मिलती हैं, उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें, जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे। शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोक-हित के लिए ही अर्पित करते रहें।

10. अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाएं

अग्नि जब जलती है तो उसमें कभी-कभी अंगारों और पटाकों की आवाज भी आती है। वैसे यह शांत स्वभाव से जलती है, ऐसे ही मनुष्य को भी शांत रहना चाहिए। लेकिन, जब अन्याय हो तो अग्नि के अंगारों के समान उस अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए।

जैसे जलते हुए हवन कुंड की ​अग्नि में से बाहर निकला हुआ अंगारा, जहां गिरता है वहां आग लगा देता है। ऐसे ही आप भी अन्याय, अधर्म और अत्याचार करने वालों के विरुद्ध जाकर उनका प्रतिरोध करने की शक्ति प्राप्त करें।