Jalaram Jayanti: क्यों मनाई जाती हैं जलाराम जयंती? जानें इसका महत्व

जलाराम बापा की जयंती हिंदू कैलेंडर के अनुसार मनाई जाती है। इसके अनुसार उनका जन्म कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को हुआ था। लोहाना समाज के कुलदेव और गुजराती समाज के आराध्य संत शिरोमणि जलाराम बापा की 226वीं जयंती 14 नवंबर को मनाई जाती है। 1799 में जलाराम बापा का जन्म गुजरात के राजकोट में हुआ। जिन्होंने अपना पूरा जीवन गरीबों की सेवा में अर्पण कर दिया। जलाराम बापा ने वीरपुर में जलाराम मंदिर की स्थापना की, जहां जरूरतमंदों को रहने और भोजन की सुविधा उपलब्ध कराई जाती थी। जलाराम बापा भगवान श्री राम के अनन्य भक्त के नाम से भी जाने जाते थे। उनके जीवन में श्री राम को लेकर अलग-अलग तरह की बहुत सी ऐसी घटनाएं घटी, जिसे देखकर कोई भी आसानी से विश्वास नहीं कर पता था।

जलाराम जयंती का महत्व

जलाराम जयंती जलाराम बापा की जयंती के रूप में मनाई जाती है। जलाराम बापा एक श्रद्धेय हिंदू संत और परोपकारी व्यक्ति थे। जलाराम जयंती एक महत्वपूर्ण दिवस है, जिसमें मानवता के लिए उनके निस्वार्थ योगदान का सम्मान, करुणा, दया और सेवा के महत्व पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। जलाराम बापा की शिक्षाएं आध्यात्मिक विकास और समाज के प्रति जिम्मेदारी को प्रेरित करती हैं। जलाराम बापू ने अपने भक्तों को सिखाया कि सच्ची सेवा हमें ईश्वर के करीब ले जाती है। यह सिद्धांत इस शुभ दिन पर उनके शिष्यों द्वारा मनाए जाने वाले उत्सवों और अनुष्ठानों का केंद्र है। जलाराम बापू ने अपना जीवन दूसरों के प्रति उदारता और दया के लिए समर्पित कर दिया और जलाराम जयंती इन मूल्यों का जश्न मनाती है। इस दिन, उनके भक्त मंदिर जाते हैं, सुबह की प्रार्थना करते हैं, उनकी स्तुति में भजन गाते हैं। फिर भक्तों को प्रसाद दिया जाता है।

बचपन से सांसारिक जीवन से रहे दूर

जलाराम बापा का जन्म 1799 में गुजरात के राजकोट के वीरपुर में कार्तिक महीने के 17वें दिन हुआ था। पिता का प्रधान ठक्कर और माता राजबाई ठक्कर थीं। भगवान श्री राम के भक्त के नाम से जाने जाने वाले जलाराम बापा को बचपन से ही सांसारिक जीवन में कोई मोह नहीं रहा। कुछ दिनों तक अपने पिता के दबाव की वजह से वह अपने व्यवसाय में उनका हाथ जरूर बटाते रहे, लेकिन जल्द ही उनके मन में व्यवसाय से भी रुचि खत्म हो गई। इसके बाद वह अपने चाचा वालजी भाई के साथ रहने लगे। 18 वर्ष की उम्र में जलाराम बापा जब तीर्थ यात्रा से लौटे तो उसके बाद वह हिंदू धर्म के प्रति इतने ज्यादा आसक्त हो गए कि फतेहपुर की भोज भगत के शिष्य बन गए। इसके बाद अपने गुरु के सुझाव से उन्होंने ‘सदाव्रत’ नाम से एक भोजन केंद्र का उद्घाटन भी किया। इस भोजन केंद्र में साधु संतों के साथ-साथ गरीबों और जरूरतमंदों को मुफ्त में भोजन खिलाया जाने लगा। उन्हें विशेष रूप से सदाव्रत के दौरान उनकी दयालुता और आतिथ्य के लिए याद किया जाता है, जो एक निःशुल्क भोजन सेवा है जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी को भोजन कराया जाता है। उन्हें सेवा और भक्ति के प्रति उनकी निष्ठा के लिए जाना जाता है।

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घर की जमीन में प्रकट हुई दिव्य प्रतिमा

एक दिन की बात है जब साधु महात्मा भोजन करने के लिए जलाराम बापा के ‘सदाव्रत’ केंद्र पर पहुंचे। साधु ने भोजन करने के बाद जलाराम को भगवान श्री राम की मूर्ति तोहफे में देते हुए कहा कि जहां पर भी श्री राम होंगे हनुमान जी वहां अवश्य आएंगे तुम प्रतीक्षा करो। उन्होंने साधु के द्वारा दी हुई श्री राम की मूर्ति को अपने घर पर पारिवारिक देवता के नाम से स्थापित कर दिया। कुछ ही दिनों के बाद उस स्थान पर हनुमान जी की मूर्ति प्रकट हुई। इसके बाद श्री राम जी के साथ-साथ सीता जी और लक्ष्मण जी की भी प्रतिमा प्रकट हुई। प्रभु श्री राम की यह लीला देखकर जलाराम हैरान रह गए और धीरे-धीरे यह खबर आम लोगों तक पहुंच गई। इसके बाद लोग उनके घर पर उन दिव्या मूर्तियों के दर्शन करने के लिए आने लग गए।

उनके नाम के साथ बापा कैसे जुड़ा?

एक बार की बात है जब हरजी नामक एक दर्जी के पेट पर जोर से दर्द शुरू हुआ। जब सारी औषधीय फेल हो गई तब वह जलाराम के पास गया। जलाराम ने उसे उसकी दुख की कहानी सुनी इसके बाद जलाराम ने भगवान श्री राम से प्रार्थना कर हरजी की पीड़ा हरने का निवेदन किया और कहा प्रभु हरजी की पीड़ा हर लो! इतना कहते ही हरजी की पीड़ा खत्म हो गई। इसके बाद हरजी जय हो बापा कहते हुए उनके पैरों पर ही गिर पड़ा और कहा जाता है कि इसके बाद से ही जलाराम के नाम के आगे ‘बापा’ शब्द भी जुड़ गया। इस घटना के होने के बाद दूर-दूर से लोग अपने कष्ट हरने की कामना के साथ जलाराम के पास आने लगे।