नवरात्रि में माता रानी का जागरण कैसे करें? जानिए तारा रानी की कथा का महत्व

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नवरात्रि के दौरान देश में अलग ही उत्साह देखने को मिलता है। इन 9 दिनों के दौरान मंदिरों को खास सजाया जाता है और जगह-जगह पर माता के जागरण और चौकियों का आयोजन किया जाता है। भक्त इन 9 दिनों के दौरान मां दुर्गा को प्रसन्न करने और कई बार मांगी गई मनोकामना पूर्ण होने पर भी माता रानी का जागरण या जगराता करते हैं। जागरण में माता की चौकी लगाई जाती है, जिसमें माता रानी का दरबार फूलों द्वारा सजाया जाता है भजन और मंत्रों के द्वारा जागरण किया जाता है। जागरण में भजन, कीर्तन, नृत्य और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। 

कब कराना चाहिए जागरण?

मां दुर्गा का जागरण आप अपनी सुविधानुसार नवरात्रि के किसी भी दिन करा सकते हैं। हालांकि अष्टमी और नवमी के दिन खासतौर पर देश में बड़ी संख्या में जागरण होते हैं। जागरण में जो भी भक्त भजन गाता है या वहां मौजूद रहता है उन्हें अलग ही सकारात्मक ऊर्जा महसूस होती है। जागरण में कन्या को देवी स्वरुप बनाकर झांकी निकाल जाती है। इसमें लोग कई बार गायकों को भी माता के भजन गाने के लिए बुलाते हैं। नवरात्र में भजन कीर्तन, जागरण करना बेहद शुभ माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इससे देवी मां प्रसन्न होती हैं। 

जागरण में तारावती की कथा सुनना अनिवार्य 

रात भर जागने के बाद सूर्योदय से कुछ वक्त पहले तारा रानी की कथा होती है, जिसे भक्तों को जरूर सुनना चाहिए। तभी जागरण पूर्ण माना जाता है। अगर आप जागरण करवा रहे हैं या जागरण में भाग ले रहे हैं तो तारा रानी की कथा जरूर सुनें।

पढ़िए तारा रानी की कथा

राजा स्‍पर्श मां भगवती के पुजारी थे। वह दिन-रात देवी मां की पूजा किया करते थे। मां ने भी उन्हें राजपाट, धन-दौलत, ऐशो-आराम के सभी साधन दिये थे, लेकिन उनके घर में कोई संतान नही थी। यह गम उन्हें हमेशा सताता रहता था। वो देवी मां से यही प्रार्थना करते थे कि मां उन्हें एक संतान दें, ताकि वे भी संतान का सुख भोग सकें। उनके पीछे भी उनका नाम लेने वाला हो, उनका वंश चलता रहे। मां ने उसकी पुकार सुन ली। एक दिन मां ने राजा को स्‍वप्‍न में दर्शन दिये और कहा कि वे उसकी भक्ति से बहुत प्रसन्‍न हैं। उन्होंने राजा को दो पुत्रियां होने का वरदान दिया।

Durga Mata Navratri Jagran
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कुछ समय के बाद राजा के घर में एक कन्‍या ने जन्‍म लिया, राजा ने अपने राज दरबारियों को बुलाया, पंडितों और ज्‍योतिषों को बुलाया और बच्‍ची की जन्‍म कुंडली तैयार करवाई। पंडित और ज्‍योतिषियों ने उस बच्‍ची की जन्‍म कुंडली देखने के बाद कहा राजन, कन्‍या तो साक्षात देवी है। यह कन्‍या जहां भी कदम रखेगी, वहां खुशियां ही खुशियां होंगी। कन्‍या भी भगवती की पुजारिन होगी। उस कन्‍या का नाम तारा रखा गया। थोड़े समय बाद राजा के घर वरदान के अनुसार एक और कन्‍या ने जन्‍म लिया। मंगलवार का दिन था।

Tara Rani ki Katha
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पंडितों और ज्‍योतिषियों ने जब जन्‍म कुण्‍डली तैयार की तो उदास हो गए। इसके बाद राजा ने उदासी का कारण पूछा तो वे कहने लगे की वह कन्‍या राजा के लिए शुभ नहीं है। राजा ने उदास होकर ज्‍योतिषियों से पूछा कि उन्होंने ऐसे कौन से बुरे कर्म किए हैं जो कि इस कन्‍या ने उनके घर में जन्‍म लिया? उस समय ज्‍योतिषियों ने ज्‍योतिष से अनुमान लगाकर बताया कि वे दोनो कन्‍याएं जिन्‍होंने उनके घर में जन्‍म लिया था, पूर्व जन्‍म में देवराज इन्‍द्र के दरबार की अप्‍सराएं थीं। उन्‍होंने सोचा कि वे भी मृत्‍युलोक में भ्रमण करें तथा देखें कि मृत्‍युलोक में लोग किस तरह रहते हैं। दोनो ने मृत्‍युलोक पर आकर एकादशी का व्रत रखा। बड़ी बहन का नाम तारा था तथा छोटी बहन का नाम रूक्‍मन। बड़ी बहन तारा ने अपनी छोटी बहन से कहा कि रूक्‍मन आज एकादशी का व्रत है, हम लोगों ने आज भोजन नहीं करना। तुम बाजार जाकर कुछ फल ले आयो। रूक्‍मन बाजार फल लेने के लिये गई। वहां उसने मछली के पकोड़े बनते देखे। उसने अपने पैसों के तो पकोड़े खा लिये तथा तारा के लिये फल लेकर वापस आ गई और फल उसने तारा को दे दिए। तारा के पूछने पर उसने बताया कि उसने मछली के पकोड़े खा लिए हैं।

तारा ने उसको एकादशी के दिन मांस खाने के कारण शाप दिया, तूने एकादशी के दिन मांस खाया है, नीचों का कर्म किया है, जा मैं तुझे शाप देती हूं, तू नीचों की जून पाये। छिपकली बनकर सारी उम्र मांस ही ‘कीड़े-मकोड़े’ खाती रहे। उसी देश में एक ऋषि गुरू गोरख अपने शिष्‍यों के साथ रहते थे। उनके शिष्‍यों में एक शिष्य तेज स्‍वभाव का और घमंडी था। एक दिन वो घमंडी शिष्‍य पानी का कमण्‍डल भरकर खुले स्‍थान में, एकान्‍त में, जाकर तपस्‍या पर बैठ गया। वो अपनी तपस्‍या में लीन था, उसी समय उधर से एक प्‍यासी कपिला गाय आ गई। उस ऋषि के पास पड़े कमण्‍डल में पानी पीने के लिए उसने मुंह डाला और सारा पानी पी गई। जब कपिता गाय ने मुंह बाहर निकाला तो खाली कमण्‍डल की आवाज सुनकर उस ऋषि की समाधि टूटी। उसने देखा कि गाय ने सारा पानी पी लिया था।

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ऋषि ने गुस्‍से में आ उस कपिला गाय को बहुत बुरी तरह चिमटे से मारा, जिससे वह गाय लहुलुहान हो गई। यह खबर गुरू गोरख को मिली तो उन्‍होंने कपिला गाय की हालत देखी। उन्होंने अपने उस शिष्य को बहुत बुरा-भला कहा और उसी वक्‍त आश्रम से निकाल दिया। गुरू गोरख ने गौ माता पर किये गए पाप से छुटकारा पाने के लिए कुछ समय बाद एक यज्ञ किया। इस यज्ञ का पता उस शिष्‍य को भी चल गया, जिसने कपिला गाय को मारा था। उसने सोचा कि वह अपने अपमान का बदला लेगा। यज्ञ शुरू होने पर उस शिष्य ने एक पक्षी का रूप धारण किया और चोंच में सर्प लेकर भंडारे में फेंक दिया, जिसका किसी को पता न चला। वह छिपकली जो पिछले जन्‍म में तारा देवी की छोटी बहन थी तथा बहन के शाप को स्‍वीकार कर छिपकली बनी थी, सर्प को भंडारे में गिरता देख रही थी।

उसे त्‍याग व परोपकार की शिक्षा अब तक याद थी। वह भण्‍डारा होने तक घर की दीवार पर चिपकी समय की प्रतीक्षा करती रही। कई लोगो के प्राण बचाने के लिए उसने अपने प्राण न्‍योछावर कर लेने का मन ही मन निश्‍चय किया। जब खीर भण्‍डारे में दी जाने वाली थी, बांटने वालों की आंखों के सामने वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी। लोग छिपकली को बुरा-भला कहते हुए खीर की कढ़ाई को खाली करने लगे तो उन्‍होंने उसमें मरे हुए सांप को देखा। तब जाकर सबको मालूम हुआ कि छिपकली ने अपने प्राण देकर उन सबके प्राणों की रक्षा की थी। उपस्थित सभी सज्‍जनों और देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में उत्‍तम मनुष्‍य जन्‍म प्राप्‍त हो तथा अन्‍त में वह मोक्ष को प्राप्‍त करे।

तीसरे जन्‍म में वह छिपकली राजा स्‍पर्श के घर कन्‍या के रूप में जन्‍मीं। दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्‍य जन्‍म लेकर तारामती नाम से अयोध्‍या के प्रतापी राजा हरिश्‍चन्‍द्र के साथ विवाह किया।

Goddess Durga
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राजा स्‍पर्श ने ज्‍योतिषियों से कन्‍या की कुंडली बनवाई ज्‍योतिषियों ने राजा को बताया कि कन्‍या आपके लिए हानिकारक सिद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं है। आप उसे मरवा दीजिए। राजा बोले कि लड़की को मारने का पाप बहुत बड़ा है। वे उस पाप का भागी नहीं बन सकते। तब ज्‍योतिषियों ने विचार करके राय दी कि राजा उसे एक लकड़ी के सन्‍दूक में बन्द करके ऊपर से सोना-चांदी आदि जड़वा दें और फिर उस सन्‍दूक के भीतर लड़की को बन्‍द करके नदी में प्रवाहित करवा दें। सोने चांदी से जड़ा हुआ सन्‍दूक अवश्‍य ही कोई लालच में आकर निकाल लेगा और राजा को कन्या वध का पाप भी नहीं लगेगा। ऐसा ही किया गया और नदी में बहता हुआ सन्‍दूक काशी के समीप एक भंगी को दिखाई दिया तो वह सन्‍दूक को नदी से बाहर निकाल लाया।

उसने जब सन्‍दूक खोला तो सोने-चांदी के अतिरिक्‍त अत्‍यन्‍त रूपवान कन्‍या दिखाई दी। उस भंगी के कोई संतान नहीं थी। उसने अपनी पत्‍नी को वह कन्‍या लाकर दी तो पत्‍नी की प्रसन्‍नता का ठिकाना न रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्‍ची को छाती से लगा लिया। भगवती की कृपा से उसके स्‍तनो में दूध उतर आया, पति-पत्‍नी दोनो ने प्रेम से कन्‍या का नाम रूक्‍को रख दिया। रूक्‍को बड़ी हुई तो उसका विवाह हुआ। रूक्‍को की सास महाराजा हरिश्‍चन्‍द्र के घर सफाई आदि का काम करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई तो तो रूक्‍को महाराजा हरिश्‍चन्‍द्र के घर काम करने के लिये पहुंच गई। महाराज की पत्‍नी तारामती ने जब रूक्‍को को देखा तो वह अपने पूर्व जन्‍म के पुण्‍य से उसे पहचान गई। तारामती ने रूक्‍को से कहा कि वो उसके पास आकर बैठे। महारानी की बात सुनकर रूक्‍को बोली- कि वो एक नीचि जाति की भंगिन है, भला वह रानी के पास कैसे बैठ सकती है?

तब तारामती ने उसे बताया कि वह उसके पूर्व जन्‍म की सगी बहन थी। एकादशी का व्रत खंडित करने के कारण उसे छिपकली की योनि में जाना पड़ा जो होना था। जो होना था वो तो हो चुका। अ‍ब उसे अपने वर्तमान जन्म को सुधारने का उपाय करना चाहिए और भगवती वैष्‍णों माता की सेवा करके अपना जन्‍म सफल बनाना चाहिए। यह सुनकर रूक्‍को को बड़ी प्रसन्‍नता हुई और जब उसने उपाय पूछा तो रानी ने बताया कि वैष्‍णों माता सब मनोरथों को पूरा करने वाली हैं। जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का पूजन और जागरण करते हैं, उनकी सब मनोकाना पूर्ण होती हैं।

Durga Devi temple in Mumbai, India during the festival of Navratri
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रूक्‍को ने प्रसन्‍न होकर माता की मनौती करते हुए कहा – हे माता, यदि आपकी कृपा से मुझे एक पुत्र प्राप्‍त हो गया तो मैं भी आपका पूजन व जागरण करवाऊंगी। माता ने प्रार्थना को स्‍वीकार कर लिया। फलस्‍वरूप दसवें महीने उसके गर्भ से एक अत्‍यन्‍त सुन्‍दर बालक ने जन्‍म लिया, लेकिन दुर्भाग्‍यवश रूक्‍को को माता का पूजन-जागरण कराने का ध्‍यान न रहा। जब वह बालक पांच वर्ष का हुआ तो एक दिन उसे माता (-चेचक) निकल आई। रूक्‍को दुखी होकर अपने पूर्वजन्‍म की बहन तारामती के पास आई और बच्‍चे की बीमारी के बारे में बताया। तब तारामती ने पूछा कि उससे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई। इस पर रूक्‍को को 6 वर्ष पहले की बात याद आ गई। उसने अपराध स्‍वीकार कर लिया। उसने फिर मन में निश्‍चय किया कि बच्‍चे को आराम आने पर जागरण अवश्‍य करवायेगी।

भगवती की कृपा से बच्चा दूसरे दिन ही ठीक हो गया। तब रुक्को ने देवी के मन्दिर में जाकर पण्डित से कहा कि मुझे अपने घर माता का जागरण करना है, सो आप मंगलवार को मेरे घर पधारकर कृतार्थ करें। पण्डित जी बोले-अरी रुक्को, जू यही पांच रुपये दे जा हम तेरे नाम से मन्दिर में जागरण करवा देंगे। तू नीच जाति की स्त्री है, इसलिए हम जागरण नहीं कर सकते। रुक्को ने कहा-हे पण्डित जी! माता के दरबार में तो ऊंच-नीच का कोई विचार नहीं होता, वे तो सब भक्तों पर समान रूप से कृपा करती हैं। अतः आपको कोई एतराज नहीं होना चाहिए। इस पर पंडितों ने आपस में विचार करके कहा कि यदि महारानी तारामती तुम्हारे जागरण में पधारें तब तो हम भी स्वीकार कर लेंगे।

यह सुनकर रुक्को महारानी के पास गई और सब बात बताई। तारामती ने जागरण में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। जिस समय रुक्को पण्डित से यह कहने के लिए गई कि महारानी जी जागरण में आएंगी, उस समय सैन नाई ने बात सुन ली और महाराजा हरिश्चन्द्र को जाकर सूचना दी। राजा ने सैन नाई से सब बात सुनकर कहा कि तेरी बात झूठी है। महारानी भंगियों के घर जागरण में नहीं जा सकती, फिर भी परीक्षा लेने के लिए उसने रात को अपनी उंगली में थोड़ा सा चीरा लगा लिया, जिससे नींद न आए। रानी तारामती ने जब देखा कि जागरण का समय हो रहा है, लेकिन महाराज को नींद नहीं आ रही तो उसने माता वैष्णो से मन ही मन प्रार्थना की कि हे माता! आप किसी उपाय से राजा को सुला दें, ताकि मैं जागरण में सम्मिलित हो सकूं। राजा को नींद आ गई। रानी तारामती रोशनदान से रस्सी बांधकर महल से उतरी लेकिन पांव का एक कंगन रास्ते में ही गिर गया। उधर थोड़ी देर बाद ही राजा हरिश्चन्द्र की नींद खुल गई, तब वह भी रानी का पता लगाने निकल पड़े। मार्ग में कंगन और रूमाल उसने देख लिया और जागरण वाले स्थान पर जा पहुंचा। राजा ने दोनों चीजें रास्ते से उठाकर अपने पास रख ली और जहां जागरण हो रहा था, वहां एक स्थान पर चुपचाप बैठकर सब दृश्य देखने लगे। जब जागरण समाप्त हुआ तो सबने माता की आरती और अरदास की। इसके बाद प्रसाद बांटा गया। रानी तारामती को जब प्रसाद मिला तो उसने झोली में रख लिया। यह देखकर लोगों ने पूछा आपने प्रसाद क्यों नहीं खाया। यदि आप न खायेंगी तो कोई भी प्रसाद न खायेगा। रानी बोली-तुमने जो प्रसाद दिया है वह मैंने महाराज के लिए रख लिया। अब मुझे मेरा प्रसाद दे दो। अब की बार प्रसाद लेकर तारामती ने खा लिया। इसके बाद सब भक्तों ने माता का प्रसाद खाया।

A beautiful idol of Maa Durga at a workshop in Mumbai during the festival of Navratri
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इस प्रकार जागरण समाप्त करके, प्रसाद खाने के बाद रानी तारामती महल की ओर चल पड़ीं। तब राजा ने आगे बढ़कर रास्ता रोक लिया और कहा कि तूने नीचों के घर प्रसाद खाकर अपना धर्म भ्रष्ट कर लिया, अब मैं तुझे अपने घर कैसे रखूं? तूने तो कुल की मर्यादा और मेरी प्रतिष्ठा का भी कोई ध्यान नहीं रखा। जो प्रसाद तू अपनी झोली में रखकर लाई है, उसे खिलाकर मुझे भी अपवित्र करना चाहती है। ऐसा कहते हुए जब राजा ने झोली की ओर देखा तो भगवती की कृपा से प्रसाद के स्थान पर उसमें चम्पा, गुलाब. गेंदा के फूल, कच्चे चावल व सुपारियां दिखाई दी। यह चमत्कार देख राजा आश्चर्यचकित रह गया। राजा हरिश्चन्द्र रानी तारामती को साथ लेकर महल लौट आए। वहां रानी ने ज्वाला मैय्या की शक्ति से बिना किसी माचिस या चकमक पत्थर की सहायता लिए राजा को अग्नि प्रज्जवलित करके दिखाई, जिसे देखकर राजा का आश्चर्य और बढ़ गया। राजा को मन ही मन में देवी के प्रति विश्वास तथा श्रद्धा जाग उठी।

इसके बाद राजा ने रानी से कहा- मैं माता के प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूं। रानी बोलीं- प्रत्यक्ष दर्शन पाने के लिए बहुत बड़ा त्याग करना पड़ेगा। यदि आप अपने पुत्र रोहताश की बलि दे सकें तो आपको दुर्गा देवी के प्रत्यक्ष दर्शत भी हो सकते है। राजा के मन में तो देवी के दर्शन की लगन हो गई थी। राजा ने पुत्र मोह त्यागकर रोहताश का सिर देवी को अर्पण कर दिया। ऐसी सच्ची श्रद्धा एवं विश्वास देख दुर्गा माता सिंह पर सवार होकर उसी समय वहां प्रकट हो गईं और राजा हरिश्चन्द्र दर्शन करके कृतार्थ हुए। 

मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया। उन्होंने विधिपूर्वक माता का पूजन करके अपराधों की क्षमा मांगी। सुखी रहने का आशीर्वाद देकर माता अन्तर्ध्यान हो गईं। राजा ने तारामती की भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा- हे तारा, मैं तुम्हारे आचरण से अति प्रसन्न हूं। मेरे धन्य भाग, जो तुम जैसी पत्नी मुझे प्राप्त हुई। इसके पश्चात् राजा हरश्चिन्द्र ने रानी तारामती की इच्छानुसार अयोध्या में माता का एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवा दिया। आयुपर्यंन भोगने के पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र रानी तारामती एवम् रुक्मन भंगिन तीनों ही मनुष्य योनि से छूटकर देवलोक को प्राप्त हुए। माता के जागरण में रानी तारामती की इस कथा को जो मनुष्य श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पढ़ता या सुनता है उसकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। 

जागरण के बाद भंडारा

ऐसी मान्यता है कि भंडारे का आयोजन करने से कभी भी अन्न की कमी नहीं होती और घर में हमेशा सुख और समृद्दि बनी रहती है। भंडारे में लोगों के साथ साधुओं को विशेष रुप से आमंत्रित किया जाता है।