गुरुणामेव सर्वेषां माता गुरुतरा स्मृता।
अर्थ: सब गुरुओं में माता को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है
हिंदु धर्म में गुरु और शिष्य का संबंध सबसे विश्वसनीय माना जाता है। माता-पिता के बाद अगर कोई पूज्यनीय है तो वो गुरु ही है। वैसे बच्चे की प्रथम गुरु मां को भी कहा जाता है। मां बचपन की पाठशाला की पहली गुरु होती है, जो बच्चों में संस्कार के बीज बोती है।
संसार में वो मां ही होती है, जो बच्चे को अच्छे बुरे की समझ बताती है। सामाजिक दायरे में रहने के गुर सिखाती है छोटा बालक सबसे पहले माता से ही वह संस्कार ग्रहण करता है। माता के उच्चारण व उसकी भाषा से ही वह भाषा-ज्ञान प्राप्त करता है। यही भाषा-ज्ञान उसके संपूर्ण जीवन का आधार होता है।
हम भले ही मां का ऋण चुका न सकें, लेकिन तन-मन से उसकी सेवा तो कर ही सकते हैं। मां अपने शिशु में वैदिक संस्कारों का सिंचन करती है उन्हीं संस्कारों के बल पर ही वह बालक धर्म- संस्कृति की रक्षार्थ सबसे आगे खड़ा रहता है।
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गुरु पूर्णिमा पर्व के अवसर पर आइए जानते हैं कि, माता का महत्व बतौर गुरु हिंदू धर्म में क्या बताया गया है? इसके अलावा, ये भी जानेंगे कि, शास्त्रों में बतौर गुरु मां की महिमा के बारे में क्या कहा गया है?
गुरु के रूप में क्या है मां की महिमा
हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां, महाकाव्य, उपनिषद आदि सब ‘मां’ को गुरु के समान दर्जा दिया गया है। श्रीमदभागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘माताओं की सेवा से मिला आशीष, सात जन्मों के कष्टों व पापों को भी दूर करता है।
मां की भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा का कवच का काम करती है। इसके साथ ही श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ‘मां’ बच्चे की प्रथम गुरु होती है।’रामायण में श्रीराम अपने श्रीमुख से कहकर ‘मां’ को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं।
श्रीमद्भागवत कथा में ध्रुव की कथा का वर्णन
जब राजा उत्तानपाद की रानी ने ध्रुव को उनकी गोद से उठा दिया तो ध्रुव की माता ने उनसे कहा कि बेटा यह तो सांसारिक मोह और माया है। पिताजी की गोद से भी बड़ी गोद तो उस परमात्मा की है, जिसने सृष्टि की रचना की है। उसके लिए सभी समान हैं।
मां की प्रेरणा से ध्रुवजी को ज्ञान हुआ और वे पांच वर्ष की उम्र में ईश्वर से मिलने के लिए चल दिए। भगवान विष्णु के परम भक्ति बालक ध्रुव बना। यह कथा हमें शिक्षा देती है कि मां की आज्ञा जीवन में सलुर्वोपरि है वही हमारी सच्ची गुरु है। मां से बड़ा कोई गुरु नहीं।
‘अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः मातृमान्
पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।’
अर्थ: जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा।
समाज में, गुरुओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है जो हमें नेतृत्व, शिक्षा, और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। वे हमें नए कौशल सीखने में मदद करते हैं और हमें अपने लक्ष्यों की दिशा में सही मार्ग दिखाते हैं। इस प्रकार, किसी के लिए उनकी असली गुरु मां भी हो सकती है। मां से जीवन है और मां ही जीवन को संवारने वाली पहली गुरु है।
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’