हनुमान जी ने भीम और अर्जुन को कैसे सिखाया विनय और संयम का पाठ?

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यूँ तो हम सब हनुमान जी को बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करने के लिए पूजते हैं क्योंकि तुलसीदास महाराज ने श्री हनुमान चालीसा में लिखा है कि — “बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवनकुमार, बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं हरहु कलेस विकार।”

क्योंकि हनुमान जी का एक नाम बजरंगबली भी है जिसका अर्थ होता है वज्र के समान शक्तिशाली अंग वाला, इसलिए बहुत से भक्त हनुमान जी को शक्ति या बल प्रदान करने के लिए पूजते हैं। क्योंकि तुलसीदास महाराज जी के अनुसार तो हनुमान जी स्वयं अतुलित बल के स्वामी हैं, यानी कि इतना बल जिसकी तुलना ही नहीं की जा सकती। पर बहुत ही कम लोग समझते हैं कि पवनसुत का जीवन हमें विनयी होना भी सिखाता है।

Hanuman जी ने स्वयं अपने जीवन में हमेशा विनयी रहने और समर्पण भाव रखने का परिचय ही दिया है। अब यही देख लीजिए कि इतना शक्तिशाली होने के बाद भी हनुमान जी स्वयं हमेशा श्रीराम के चरणों के दास बने रहे, यहाँ तक कि वह हमेशा वानरराज सुग्रीव की भी सेवा करते रहे।

हनुमान जी ने तो त्रेता युग अर्थात राम जी के समय में कई कार्य किए जिनके लिए उनका गुणगान है। किंतु आज के इस लेख में जानेंगे कि श्री पवनसुत ने द्वापर युग अर्थात श्रीकृष्ण के समय में उन्होंने कौन-कौन से कार्य किए।

Hanuman Ji का महाबली भीम को विवेक का पाठ पढ़ाना

hanuman ji ne kaise toda bheem ka ghamand

एक समय की बात है, पांडवों में बीच के भाई भीम को अपने बल पर बहुत अहंकार हो चला, और हो भी क्यों न? ऐसा कहते हैं कि जब दुर्योधन ने भीम को मारने के लिए छल से ज़हर वाली खीर खिला दी थी और पानी में फेंक दिया था, तब वे नागलोक पहुँच गए। वहाँ नागराज ने उन्हें एक ऐसा काढ़ा पिलाया था जिससे कि उनमें 10,000 हाथियों का बल आ गया था।

इसी बल के कारण भीम को अपनी शक्तियों का अहंकार होने लगा। जब भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का आभास हुआ तो उन्होंने हनुमान जी को याद किया और उनसे कहा कि वे भीम को संयम रहने का पाठ पढ़ाएं।

अब क्योंकि भीम भी पवन देव के ही पुत्र थे और हनुमान जी का भी जन्म पवन देव के आशीर्वाद से ही हुआ था, इसलिए दोनों भाई-भाई थे। तो हनुमान जी ने भी बड़े भाई होने की खातिर छोटे भाई को पाठ पढ़ाने के बारे में सोचा।

तो कहानी कुछ इस प्रकार है कि एक बार जब पांडव वनवास का समय काट रहे थे और भीम शाम के समय अपनी कुटिया में जा रहे थे, तब हनुमान जी एक बूढ़े वानर का रूप धारण करके रास्ते में लेट गए और उन्होंने अपनी पूँछ को लंबा करके भीम के रास्ते में फैला दिया।

जब भीम वहाँ से निकले तो उन्होंने पूँछ को देखा और वानर से उस पूँछ को हटाने के लिए कहा। किंतु हनुमान जी सोने का नाटक करते रहे। पुनः भीम ने ग़ुस्से में आकर हनुमान से कहा कि अपनी पूँछ हटाइए। पर हनुमान जी फिर से अनसुना कर दिए। इस पर भीम ने फिर से कहा कि आप खुद अपनी पूँछ हटाते हैं या मैं ही इसे रास्ते से अलग कर दूँ?

इस पर बूढ़े वानर ने कहा — “जैसा ठीक लगे भैया, वैसे कर दो। मैं तो बूढ़ा हूँ, मुझसे तो ज़्यादा चला-फिरा नहीं जाता।”

इस पर भीम ने ग़ुस्से में आकर हनुमान जी की पूँछ को उठाकर रास्ते से हटाने का प्रयास किया किंतु वह हटा नहीं पाए। भीम ने पुनः प्रयास किया किंतु फिर से नहीं हटा पाए।

इस पर हनुमान जी ने कहा — “क्या हुआ भैया? शरीर से तो बड़े हष्ट-पुष्ट दिखते हो, एक बूढ़े वानर की पूँछ नहीं हटा पा रहे?”

अब तो भीम और क्रोधित हो गए और उन्होंने फिर और ताकत के साथ प्रयास किया, किंतु वे फिर से असफल हो गए।

हनुमान जी ने फिर उन्हें ताना मारते हुए कहा — “क्या हुआ भैया, पूँछ हटा दो!”

किंतु भीम फिर से असफल हो गए।

तब भीम को एहसास हुआ कि यह कोई दिव्य जीव है जो कि मेरी परीक्षा लेने आया है। इसलिए उन्होंने हनुमान जी से पूछा — “हे देव, कृपया करके अपने असली रूप में आकर मुझे दर्शन दीजिए।”

तब हनुमान जी ने भीम की बात मानते हुए उन्हें अपना वास्तविक रूप दिखाया और हनुमान जी ने कहा — “कि मैं और तुम दोनों पवन के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि तुममें बहुत बल है, किंतु बल के साथ संयम का होना भी बहुत आवश्यक है। कभी भी अपने बल का घमंड नहीं करना चाहिए।”

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तब भीम ने अपने बड़े भाई से क्षमा प्रार्थना की और कहा कि अब से वे अपने बल का कभी भी घमंड नहीं करेंगे।

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Hanuman जी ने किया अर्जुन के घमंड का नाश

hanuman ji ne kaise arjun ke ghamand ko toda

इसी प्रकार एक बार अर्जुन को भी अपनी धनुर्विद्या का बहुत अभिमान हो चला। तब हनुमान जी उनकी परीक्षा लेने और उन्हें विवेक का पाठ पढ़ाने श्रीकृष्ण के कहने पर आए।

कहानी इस प्रकार है कि एक बार अर्जुन भ्रमण करते हुए रामेश्वरम पहुँचे और उन्होंने त्रेता युग में राम जी की सेना द्वारा बनाया हुआ पत्थरों का पुल देखा। और कहने लगे — “श्रीराम तो स्वयं इतने बड़े धनुर्धर थे, तो फिर उन्हें पत्थरों का पुल बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? वे तो स्वयं अपनी धनुर्विद्या का प्रयोग करके बाणों का पुल बना सकते थे।”

अर्जुन जब यह सब बोल ही रहे थे, तभी वहाँ एक छोटा सा वानर आया। उस वानर ने कहा — “आप शायद वानरों की शक्ति को कम समझ रहे हैं। यदि बाणों का पुल बनाया जाता तो वह वानरों का वज़न सहन नहीं कर पाता। बाणों का पुल तो इतना हल्का होता है कि वह तो मेरा भी वज़न नहीं उठा पाएगा।”

इस बात से अर्जुन क्रोधित हुए और बोले — “शायद राम जी के बाणों का पुल उनकी सेना का वज़न न उठा पाया हो, किंतु अगर मैं पुल बनाता तो सारी सेना उस पर से पार निकल जाती और उस पुल का कुछ नहीं होता।”

उस वानर ने पुनः कहा — “तुम्हारे द्वारा बनाया हुआ पुल भी मेरा भार नहीं उठा पाएगा।”

अर्जुन ने इसे चुनौती समझते हुए क्रोध में कहा — “आप शायद जानते नहीं कि आप किससे बात कर रहे हैं। मैं अर्जुन हूँ, धरती का सबसे महान धनुर्धर।”

इस पर हनुमान जी ने कहा — “अगर इतने ही बड़े धनुर्धर हो तो बनाओ पुल, मैं देखता हूँ कि मैं उस पुल पर चल पाऊँगा या नहीं।”

अर्जुन ने तुरंत ही चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने बाणों का एक पुल बना दिया और वानर से कहा कि — “अब आप इस पुल पर चलकर दिखाइए।”

अर्जुन की बात मानते हुए उस वानर ने जैसे ही पुल पर पहला कदम रखा, वह पुल ढह गया। और वानर ने उस पर ताना कसते हुए अर्जुन से कहा — “हे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, तुम्हारे बाणों का पुल तो मेरे एक कदम का भार भी नहीं सह पाया, और तू गया।”

तब अर्जुन को एहसास हुआ कि यह कोई मामूली वानर नहीं हैं और अर्जुन ने उन्हें अपना असली स्वरूप दिखाने को कहा।

तब हनुमान जी ने उन्हें अपना असली रूप दिखाते हुए कहा — “कि धनुर्विद्या का अभिमान करना अच्छी बात नहीं है। इसके साथ विवेक और संयम होना भी उतना ही ज़रूरी है।”

तब अर्जुन ने हनुमान जी को प्रणाम करते हुए माफ़ी माँगी।

अर्जुन को एक बार स्वयं भगवान शंकर ने भी पाठ पढ़ाया था। उसे हम आगे के लेख में जानेंगे।

Hanuman Ji की महाभारत के युद्ध में क्या भूमिका रही — यह जानने के लिए हमारा यह वाला लेख पढ़ें।