नटराज: भगवान शिव का दिव्य एवं अलौकिक स्वरुप

A majestic depiction of Lord Shiv (शिव) in his dancing Natraj (नटराज) form

शास्त्रों में भगवान शिव के विभिन्न रूपों व लीलाओं का वर्णन मिलता है। ऐसा मानते हैं कि भगवान शिव का स्वभाव जितना सरल व कोमल है, उतना ही रौद्र भी है, इसलिए जहाँ एक तरफ उनका नाम भोलेनाथ है तो वहीँ दूसरी तरफ उन्हें रुद्र भी कहा जाता है।  भगवान शिव को उनके भक्त महादेव, शंकर, भोलेनाथ जैसे अनेक नामों से भी पुकारते हैं। इसी प्रकार से भगवान शिव का एक नाम उनके भक्तों ने नटराज भी रखा हुआ है तो आज इस लेख के माध्यम से भगवान शिव के इसी नटराज रूप की महिमा के बारे में जानने का प्रयास करते हैं।

नटराज का अर्थ 

नटराज दो शब्दों की संधि से बना है, जिसमें “नट” का अर्थ है ‘अभिनय, नाटक, नृत्य’, और ‘राज’ का अर्थ है ‘राजा, स्वामी’ और इसीलिए नटराज का अर्थ बनता है “नृत्यों के राजा”, अर्थात वह जो कि सबसे श्रेष्ठ नर्त्य करते हैं।  

ऐसा मानते हैं कि भगवान शिव जब प्रस्सन होते हैं प्रफुल्लित होते है तो वह एक सौम्य नर्त्य करते हैं, ये नर्त्य वह अधिकतर देवी पार्वती जी के साथ करते हैं।  यह प्रफुल्लित नृत्य भगवान शिव सृष्टि के सृजन के समय भी करते है किंतु भगवान शिव के नृत्य का एक उग्र एवं रौद्र रूप भी है, भगवान शिव यह नृत्य तब करते हैं जब सृष्टि का संहार या विनाश  करना होता है। भगवान शिव के इस रौद्र नृत्य को तांडव नृत्य कहते हैं। 

त्रेतायुग में लंका के राजा रावण ने , जिनको कि एक महान शिवभक्त भी माना जाता है, भगवान शिव के इस तांडव नृत्य का वर्णन करते हुए कई सुन्दर श्लोक भी लिखे जिनको कि भगवान शिव के भक्त “शिव स्त्रोत्रं” या “शिव तांडव स्त्रोतम” के रूप में सुनते या भजते हैं।

भगवान शिव ने क्यों धारण किया नटराज रूप ?

भगवान शिव के नटराज रूप धारण करने के पीछे एक दिलचस्प कथा है। 

दक्षिण भारत के एक घने जंगल में कई ऋषि रहते थे किन्तु एक राक्षस अपस्मार ने उन्हें विधर्मी बना दिया था। भगवान शिव ने उन्हें पराजित करने के लिए एवं पुनः धर्म के मार्ग पर लाने के लिए, वहाँ जाने का निर्णय लिया और उनके साथ विष्णु जी भी एक सुंदर महिला के रूप में गए। पहले तो उन ऋषियों के बीच उस  सुन्दर स्त्री को लेकर भयंकर विवाद शुरू हो गया, लेकिन जल्द ही उनका क्रोध उस स्त्री के साथ आए उस पुरुष की ओर मुड़ गया और विधर्मी ऋषिओं ने मंत्रों के माध्यम से भगवान शिव को नष्ट करने का प्रयास किया।

ऋषियों ने यज्ञ की अग्नि से एक भयंकर बाघ उत्पन्न किया, जो शिव पर झपटा लेकिन शिव ने मुस्कुराते हुए, अपनी छोटी उंगली के नाखून से उसकी खाल उतार दी और उसे रेशमी कपड़े की तरह अपने चारों ओर लपेटकर परिधान के रूप में धारण कर लिया।  असफलता से निराश न होकर, ऋषियों ने अपनी बलि को फिर से दोगुना कर दिया और एक विशालकाय नाग उत्पन्न किया, जिसे शिव ने पकड़कर अपने उदर के चारों तरफ लपेट लिआ। इसके बाद शिव ने अपना तांडव नृत्य करना शुरू कर दिया; लेकिन उन पर उस राक्षस ने, जो एक बौने के रूप में था, आक्रमण कर दिया किन्तु भगवान शिव ने उसे अपने पैर के निचे दबाकर उसकी पीठ तोड़ दी, जिससे वह भूमि पर तड़पने लगा और इस प्रकार, अपने अंतिम शत्रु को पराजित कर, शिव ने पुनः नृत्य करना शुरू किया।

कैसा दिखता है भगवान शिव का नटराज स्वरुप?

A majestic depiction of Lord Shiv (भगवान शिव) in his dancing Natraj form (नटराज)
© HarGharPuja

भगवान शिव के नटराज स्वरुप को पहली बार दसवीं और बारहवीं शताब्दी ईस्वी के बीच दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तियों की एक सुंदर श्रृंखला में प्रस्तुत किया गया था। इन चित्रों में, नटराज अपने दाहिने पैर को एक दबी हुई आकृति पर टिका कर और बायां पैर सुंदरता से उठाकर नृत्य कर रहे थे।  उनके शिखर पर अर्धचंद्र था और वह एक आग के गोले के भीतर नृत्य कर रहे थे। 

 नटराज स्वरुप की कई और आकृतियां भी प्रचिलित हैं किन्तु सबसे आम आकृतियाँ चार भुजाओं वाले शिव को चित्रित करती हैं। ये भुजाएँ चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्येक हाथ या तो एक वस्तु पकड़े होता है या एक विशिष्ट मुद्रा (मुद्रा) बनाता है।

प्रमुख मुद्राएं और उनके प्रतीकात्मक अर्थ:

ऊपरी दाहिना हाथ: इसमें नटराज ने एक डमरू पकड़ा हुआ है जिसे वह निरंतर बजा रहे है, ये डमरू सृष्टि के सृजन की ध्वनि का प्रतीक है इसके अलावा डमरू से निकलने वाली ध्वनि इस नर्त्य के लिए संगीत भी प्रदान करती है।

 ऊपरी बायां हाथ: इसमें भगवान शिव अग्नि पकड़े हुए है , जो विनाश और पुनरुत्थान का प्रतीक है।

निचला दाहिना हाथ: इससे नटराज अभय मुद्रा का दर्शा रहे हैं, जो दर्शाता है कि भगवान शिव हर प्रकार के भय से मुक्ति प्रदान करते हैं। 

निचला बायां हाथ: नटराज का यह हाथ ऊपर उठे हुए पैर की ओर इशारा करता है, जो कि मुक्ति और उन्नति का प्रतीक है।

भगवान नटराज एक बौने के शरीर को दबाए हुए नृत्य करते हुए दिखते हैं, पौराणिक एवं लोक कथाओं के अनुसार ये बौना एक राक्षस है जिसका कि नाम अपस्मार है जो हिंदू पौराणिक कथाओं में आध्यात्मिक अज्ञानता और निरर्थक भाषण का प्रतिनिधित्व करता है। इसे मयालक या मयालकन भी कहा जाता है। 

आयुर्वेद में ‘अपस्मार’ एक बीमारी की अवधारणा है जिसमें स्मृति की हानि हो जाना एक लक्षण के रूप में देखी जाती है। भगवान शिव का इस राक्षस को अपने पैर के निचे दबाके रखना शिव की अज्ञानता पर विजय को दर्शाता है।

आग और प्रकाश का गोला जो उनकी नृत्य मुद्रा को चारों तरफ से घेरा हुआ है वह पुरे ब्रह्माण्ड को दर्शाता हैं।  यह  गोला सृजन, संरक्षण और विनाश के चक्र का प्रतीक है, जो ब्रह्मांड की निरंतर परिवर्तनशीलता को दर्शाता है।

नटराज मुद्रा में भगवान शिव के  कमर के चारों ओर बंधा हुआ सांप कुंडलिनी है, जो शक्ति या दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है। उनका तांडव नृत्य इतना तीव्र है कि उनके बाल, जो आमतौर पर जटाओं में बंधे होते हैं, ढीले होकर चारों ओर बिखर रहे हैं। इस नटराज मुद्रा में भगवान शिव के शेखर पर उनकी जटाओं के बीच में मां गंगा की छोटी सी आकृति बैठी है जिन्हें कि भारत वर्ष में समस्त नदियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हैं। कहते हैं कि जब माँ गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरी, तो भगवान शिव ने अपने जटाओं से उसके वेग को कम कर दिया, जिससे पृथ्वी उसके प्रबल वेग से नष्ट होने से बच गई।

जब भी नटराज ब्रह्मांड का सृजन और विनाश करने के लिए  नृत्य करते हैं, तो उनका चेहरा शांत और अचल रहता है, जो उनकी पूर्ण संतुलन में रहने की तटस्थता को दर्शाता है।

भगवान शिव के नटराज रूप का ध्यान करने के लिए एक मंत्र भी है जो कि इस प्रकार है; 

“आंगिकम् भुवनं यस्य वाचिकं सर्वांग्म्यम्। आहार्यं चंद्रतारादि तं नमः सात्त्विकं शिवम्”

अर्थात- जिनके अंग ब्रह्मांड हैं, जिनके वचन सभी भाषाओं का सार है, जिनके आभूषण स्वयं चन्द्रमा और तारे हैं ऐसे पुण्यवान भगवान शिव को हम नमन करते है।