हिंदू धर्म में पूर्वजों की पूजा की विशेष महिमा बताई गई है।
जब तक माता-पिता आदि जीवित रहें, तब तक उनका भरण-पोषण करना पुत्र की जिम्मेदारी है। उनकी मृत्यु के बाद भी पुत्र का ये कर्तव्य है कि, उनके लिए परलोक में भी तृप्ति की व्यवस्था करे।
हिंदू धर्म में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से लेकर अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक के समय को पितृ पक्ष कहा जाता है।
इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
लेकिन, आधुनिक समय में हर व्यक्ति के लिए तीर्थ में जाकर श्राद्ध करना संभव नहीं हो पाता है। ऐसे में, घर में ही पितृ तर्पण किया जा सकता है। इस आर्टिकल में हम आपको घर पर पितरों का तर्पण करने की आसान विधि के बारे में जानकारी देंगे।
पितरों की महिमा क्या है?
।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।…ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारंबार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।
यजुर्वेद में कहा गया है कि, ‘हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।’
तर्पण में काम आने वाली सामग्री:
- शुद्ध जल
- तांबे का लोटा
- बैठने के लिए कुश का आसन
- कुश की बनी पवित्री (दो कुश की, 3 कुश की)
- त्रिकुश की जड़ वाली गांठ
- बड़ी थाली या परात
- कच्चा दूध
- लाल और सफेद फूल
- फूल-माला
- कुश
- सुपारी
- जौ
- काले तिल
- चावल
- जनेऊ
- गमछा
आदि सारी सामग्री को पास में रखें।
देव, ऋषि और पितृ तर्पण विधि:
सर्वप्रथम पूर्व दिशा की ओर मुंह कर, दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर, सव्य होकर (जनेऊ व् अंगोछे को बायें कंधे पर रखें) गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथ की अनामिका अंगुली में कुशों की पवित्री (पैंती) धारण करें। फिर हाथ में त्रिकुशा, जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प पढ़ें-
ॐ विष्णवे नम:। (तीन बार कहें)
हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुक शर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये ।
तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें-
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः।
इसके बाद, परात में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सफेद पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र में तर्पण के लिये जल भर दें । फिर उसमें रखे हुए त्रिकुशा को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढक लें और देवताओं का आह्वान करें।
आह्वान मंत्र : ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम, हवम्। एदं वर्हिनिषीदत॥
अर्थ: ‘हे विश्वेदेवगण ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आह्वान को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजें।
इस प्रकार आह्वान कर कुश का आसन दें और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथ की सभी अंगुलियों के अगले पोर (नाखून के ऊपर वाले हिस्से) से गिराया जाएगा। अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये उक्त परात में से एक-एक अञ्जलि तिल चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङ्कित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढ़ते रहें-
1. देव तर्पण:
- ॐ ब्रह्मास्तृप्यताम् ।
- ॐ विष्णुस्तृप्यताम् ।
- ॐ रुद्रस्तृप्यताम् ।
- ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् ।
- ॐ देवास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् ।
- ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ संवत्सरसावयवस्तृप्यताम् ।
- ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ नागास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।
- ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् ।
- ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् ।
- ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम्।
2. ऋषि तर्पण
इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्र वाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें।
- ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।
- ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।
- ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।
- ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।
- ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।
- ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।
- ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।
- ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।
- ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।
- ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥
3. मनुष्य तर्पण
उत्तर दिशा की ओर मुंह कर लीजिए। जनेऊ और गमछे को माला की तरह गले में पहन लीजिए। सीधा बैठ कर निम्नाङ्कित मन्त्रों को दो-दो बार पढ़ते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि जौ सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूल-भाग) से अर्पण करें।
(जल को दोनों हाथ जोड़ने से बनी अंजलि के बीच से नीचे गिरा देना है।)
- ॐ सनकस्तृप्यताम् -2
- ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् – 2
- ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2
- ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2
- ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2
- ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2
- ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2
4. पितृ तर्पण
दोनों हाथ की अनामिका में धारण की हुई पवित्री व त्रिकुशा को निकाल कर रख दें
अब दोनों हाथ की तर्जनी अंगुली में नया पवित्री धारण कर मोटक नाम की कुश के मूल और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे, स्वयं दक्षिण की ओर मुंह करें।
बाएं घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दायें कंधे पर रखकर बाएं हाथ से नीचे ले जाएं) पात्र के जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें-
- ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
- ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
- ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
- ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
- ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3
- ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3
- ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3
5. यम तर्पण
इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रों को पढ़ते हुए 14 यमों के लिये भी पितृ तीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें-
- ॐ यमाय नम: – 3
- ॐ धर्मराजाय नम: – 3
- ॐ मृत्यवे नम: – 3
- ॐ अन्तकाय नम: – 3
- ॐ वैवस्वताय नमः – 3
- ॐ कालाय नम: – 3
- ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3
- ॐ औदुम्बराय नम: – 3
- ॐ दध्नाय नम: – 3
- ॐ नीलाय नम: – 3
- ॐ परमेष्ठिने नम: – 3
- ॐ वृकोदराय नम: – 3
- ॐ चित्राय नम: – 3
- ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3
6. मनुष्य पितृ तर्पण
इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से पितरों का आह्वान करें-
ॐ आगच्छन्तु मे पितर इवं ग्रहन्तु जलान्जलिम’
अर्थ: ॐ हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए।
‘हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं । हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ ।’
तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें-
- अस्मत्पिता अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
- अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
- अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
- अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3
- अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3
- अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3
इसके बाद नौ बार पितृतीर्थ से जल छोड़ें।
इसके बाद सव्य होकर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर लें। अब नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिराएं
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा: । पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा: ॥
जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तव: । प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला: ॥
नरकेषु समस्तेपु यातनासु च ये स्थिता: । तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिण: ॥
अर्थ : ‘देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से शीघ्र तृप्त हों । जो समस्त नरकों तथा वहां की यातनाओं में दु:ख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूं।
जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुझसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों।’
ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:। तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आ ब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥
येऽबान्धवा बान्धवास्च वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:। ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा॥
अर्थ : ‘ब्रह्माजी से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों मेरे कुल की बीती हुई करोड़ों पीढ़ियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यन्त सात द्वीपों के भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में या किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सभी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो जाएं।
तत्पश्चात् कंधे के वस्त्र को चार बार लपेटकर जल में डुबो लें और बाहर ले आकर निम्नाङ्कित मन्त्र :
“ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृता: । ते गृह्न्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम्”
को पढते हुए अपसव्य होकर अपने बाएं भाग में भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़ें। पवित्री को तर्पण किए हुए जल में छोड़ दें।
(यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिए।)
7. भीष्म तर्पण:
इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही जनेऊ को अपसव्य करके हाथ में कुश धारण किये हुए ही बाल ब्रह्मचारी गंगापुत्र भीष्म के लिये पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल के द्वारा तर्पण करें। उनके लिये तर्पण का मन्त्र निम्नाङ्कित श्लोक है-
(“वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च। गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम् । अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे॥”)
अर्घ्य दान:
फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करें। इसके बाद, यज्ञोपवीत सव्य कर एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसमें श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड़ दें।
फिर दूसरे पात्र में चन्दन से षडदल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आह्वान-पूजन करें तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्घ्य अर्पण करें।
अर्घ्यदान के मन्त्र निम्नलिखित हैं-
- ॐ ब्रह्मणे नम:।
- ॐ विष्णवे नम:।
- ॐ रुद्राय नम:।
- ॐ सवित्रे नम:।
- ॐ मित्राय नम:।
- ॐ वरुणाय नम:।
फिर भगवान सूर्य को अर्घ्य दें। हाथों को ऊपर करके मंत्र पढ़ें
एहि सूर्य सहस्त्राशों तेजो राशिं जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाघ्र्य दिवाकरः।
फिर परिक्रमा करते हुए दशों दिशाओं को नमस्कार करें।
- ॐ प्राच्यै इन्द्राय नमः।
- ॐ आग्नयै अग्नयै नमः।
- ॐ दक्षिणायै यमाय नमः।
- ॐ नैऋत्यै नैऋतये नमः।
- ॐ पश्चिमायै वरुणाय नमः।
- ॐ वायव्यै वायवे नमः।
- ॐ उदीच्यै कुबेराय नमः।
- ॐ ऐशान्यै ईशानाय नमः।
- ॐ ऊध्र्वायै ब्रह्मणै नमः।
- ॐ अवाच्यै अनन्ताय नमः।
इस तरह दिशाओं और देवताओं को नमस्कार कर बैठकर नीचे लिखे मन्त्र से पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।
- ॐ ब्रह्मणै नमः।
- ॐ अग्नयै नमः।
- ॐ पृथिव्यै नमः।
- ॐ औषधिभ्यो नमः।
- ॐ वाचे नमः।
- ॐ वाचस्पतये नमः।
- ॐ महद्भ्यो नमः।
- ॐ विष्णवे नमः।
- ॐ अद्भ्यो नमः।
- ॐ अपांपतये नमः।
- ॐ वरूणाय नमः।
फिर तर्पण के जल को मुख पर लगायें और तीन बार ॐ अच्युताय नमः मंत्र का जप करें।
समर्पण- उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भगवान को समर्पित करें।
ॐ तत्सद् कृष्णार्पण मस्तु।
नोट- यदि नदी में तर्पण किया जाय तो दोनों हाथों को मिलाकर जल से भरकर गौ माता के सींग जितना ऊंचा उठाकर जल में ही अंजलि डाल दें।
(नोट: जल की परात को साक्षात पितृ मानकर प्रणाम करें। जल को बगीचे में किसी पेड़ के नीचे डाल दें।)
देव, ऋषि, पितृ तर्पण कर्म संपन्न हुआ।
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8 तीर्थ स्थल, जहां पितृ श्राद्ध और तर्पण से मुक्ति मिलती है
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